आज फैज अहमद फैज यांचा जन्मदिन. फैजच्या गजलांनी आणि गीतांनी माणसाचं जगणं समृद्ध केलं. उर्दू गजलेला नव्या उंचीवर नेणारा हा शायर साध्या माणसाला जगण्याचं तत्त्वज्ञान शिकवत राहिला. बोल की लब्ज आजाद हैं, असं सांगणारी त्याची कविता अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याचा कधीच न संपणारा अविष्कार बनलीय.
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
प्रेमाशिवायही खूप दुःख आणि मिलनापेक्षाही जास्त आनंद या जगात आहेत, असं सांगणारी फैज अहमद फैजची कविता. फैज हे उर्दू गझलेतलं महत्वाचं नाव. फक्त उर्दू गजलेतच नाही तर जागतिक कवितेत फैजचं नाव सन्मानाने घेतलं जातं. उर्दू गजलेला आणि कवितेला आधुनिक रूप देण्यात त्यांचं योगदान महत्त्वाचं आहे.
१३ फेब्रुवारी हा त्यांचा जन्मदिवस. लाहोरच्या सियालकोट शहरात १९११ मधे त्यांचा जन्म झाला. म्हणजेच स्वातंत्र्यापूर्वीचा पंजाब प्रांत. त्यांच्या घरचं वातावरण हे रुढी-परंपरांचा पगडा असलेलं होतं. लाहोरमधे एमएचं शिक्षण घेत असताना आणि पुढे अमृतसर येथे लेक्चरशिप करताना मार्क्सवादी विचारांचा प्रभाव त्यांच्यावर पडला.
फैजने काही काळ तर ब्रिटीश भारतीय सैन्यातही काम केलं. भारत-पाकिस्तान फाळणी झाल्यावर ते त्यांच्या शहरात लाहोरमधे राहिले. १९३८ ते १९४६ दरम्यान उर्दू मासिक `अदब ए लतीफ`चं संपादन केलं. उर्दू शायरीला आणि भाषेलाही त्यांनी वेगळी उंची मिळवून दिली.
हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे, जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे, असं म्हणणारा हा शायर. नव्यांना फैज समजण्यास कठीण वाटतात. तरीही ते आपले वाटतात. अभिव्यक्तीवर परखड भाष्य करणारी आणि बंडखोरी दाखवणारी त्यांची कविता 'बोल की लब्ज आझाद हैं' आजही सर्वांच्या तोंडी आहे. ते नेहमीच्या गजलांसारखे फक्त इश्क, शबाब आणि शराबविषयी बोलत नाहीत, तर त्यांच्या कवितांमधे एक वैचारिक भूमिका असते.
फैज रूढ विचार आणि परंपरांवर हल्ला करतात. त्यांच्या कविता वाचताना त्यातली बंडखोरी अंगावर येते. मात्र त्याचं अंतरंगावर सुफी विचारांचा प्रभाव दिसतो. त्यांच्या गजल, कवितांमधे स्वातंत्र्य, प्रेम, करुणा, समता आणि न्यायाची भाषा दिसून येते. त्यांच्या अशाच काही रचना.
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं
जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलायें
चलो फिर से दिल लगायें
चलो फिर से मुस्कुराएं
किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फे-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गयी हैं रातें
जो बिसर गयी हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल लगाएं
आपकी याद आती रही रात-भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात-भर
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात-भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात-भर
फिर सबा साय-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात-भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात-भर
एक उमीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात-भर
बोल कि लब्ज आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया
बात बस से निकल चली है
दिल की हालत सँभल चली है
अब जुनूँ हद से बढ़ चला है
अब तबीअत बहल चली है
अश्क ख़ूँनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है
लाख पैग़ाम हो गये हैं
जब सबा इक पल चली है
जाओ, अब सो रहो सितारो
दर्द की रात ढल चली है
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
गो सबको बहम साग़र-ओ-वादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना ज़्यादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो-चार दिवाने
हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था
वाइज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत
फ़र्क़ इनमें कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था
थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
वो मिरे हो के भी मिरे न हुए
उन को अपना बना के देख लिया
आज उन की नज़र में कुछ हम ने
सब की नज़रें बचा के देख लिया
'फ़ैज़' तकमील-ए-ग़म भी हो न सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया